केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को वामपंथी छात्रों ने घेरा, राज्यपाल ने बचाया

पश्चिम बंगाल की जादवपुर यूनिवर्सिटी में गुरुवार को एक कार्यक्रम में पहुंचे केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो को छात्रों ने कई घंटों तक घेरे रखा और आख़िरकार राज्यपाल जगदीप धनखड़ उन्हें कैंपस से निकालकर ले गए.
जादवपुर कैंपस में मौजूद हमारे बीबीसी संवाददाता अमिताभ भट्टासाली ने बताया कि बाबुल सुप्रियो का तक़रीबन साढ़े पांच घंटे तक घेराव किया गया बाद में जब राज्यपाल उन्हें छुड़ाने पहुंचे तो लगभग एक घंटे तक उनको भी घेरकर रखा गया था.
केंद्रीय मंत्री यूनिवर्सिटी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के एक कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे थे.
बाबुल सुप्रियो ने वाइस चांसलर से पुलिस को बुलाने को कहा लेकिन उन्होंने कहा कि शिक्षण संस्थान में पुलिस बुलाने की बजाय वो इस्तीफ़ा देना ज़्यादा पसंद करेंगे.
टीएमसी महासचिव पार्थ चटर्जी ने बयान जारी किया है कि राज्यपाल राज्य सरकार को सूचित किए बिना वहां गए और उन्होंने रास्ते में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को फ़ोन किया, मुख्यमंत्री ने उन्हें वहां न जाने की सलाह दी लेकिन वह फिर भी वहां चले गए.
सत्ताधारी दल ने कहा है कि यह क़ानून-व्यवस्था का मामला नहीं है. टीएमसी ने कहा है कि राज्य की पुलिस यूनिवर्सिटी के बाहर खड़ी थी लेकिन वाइस चांसलर की ओर से कोई अनुरोध न आने के कारण वह अंदर नहीं गई.
इससे पहले दिन में बाबुल सुप्रियो ने ट्वीट कर कहा, "ये कुछ भी कर लें उकसा मुझे पाएंगे नहीं. लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने में विपक्ष की भूमिका सत्ताधारी दल की तरह ही काफी अहम है, तथा मतभेदों को धैर्यपूर्वक सुनना भी आवश्यक है. इस तरह का व्यवहार अनुचित तथा निन्दनीय है."
छात्रों के बीच से बाबुल सुप्रियो को निकालने में सीआरपीएफ़ के गार्ड भी असमर्थ दिखे.
उन्हें निकालने के लिए राज्यपाल यूनिवर्सिटी पहुंचे जो ख़ुद यूनिवर्सिटी के चांसलर भी हैं. राज्य के इतिहास में इसे अभूतपूर्व माना जा सकता है.
सामचार एजेंसी एएनआई के अनुसार, राज्यपाल के मीडिया सचिव ने कहा है कि छात्रों के एक हिस्से द्वारा केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो के घेराव को राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने गंभीरता से लिया है और पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव से इस बारे में बात की है.
मीडिया सचिव के अनुसार, "राज्यपाल ने जादवपुर यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर से बात की है और इस बात से नाराज़गी ज़ाहिर की है कि इस मामले में तुरंत कोई क़दम नहीं उठाया गया है, जिससे हालात बिगड़ सकते हैं. राज्य की शासन व्यवस्था गंभीर होने का ये उदाहरण है."
इसराइल के आम चुनाव में किसी को स्पष्ट बहुमत न मिलने की स्थिति में किंगमेकर के रूप में उभरे नेता अविगडोर लिबरमन बहुतों के लिए एक पहेली बने हुए हैं. पर लिबरमन इसरायली राजनीति के मंच पर कोई नया नाम नहीं है.
इजराइल में भी बहुत कम लोग ये जानते हैं कि किसी समय नेतन्याहू और लिबरमन की जोड़ी अविभाज्य थी. नेतन्याहू जब लिकुड पार्टी के उभरते सितारे थे तब लिबरमन उनके सबसे विश्वसनीय साथी थे और नेतन्याहू को शीर्ष तक पहुँचाने में उनकी अहम भूमिका रही.
लिबरमन ने नेतन्याहू के पहले प्रधानमंत्री काल के दौरान उनके दफ्तर में डायरेक्टर जनरल का पद भी संभाला और सबसे प्रभावशाली लोगों में उनकी गिनती थी.
61 वर्ष के लिबरमन 1978 में सोवियत संघ के माल्डोवा क्षेत्र से इसराइल आये और उनका परिवार पश्चिम तट की नोकदीम बस्ती में रहता है. एक लम्बे समय तक लोग उन्हें एवेत के नाम से जानते थे, मगर उन्होंने बाद में अपना नाम बदलकर एक हिब्रू नाम अपना लिया, अविगडोर.
नेतन्याहू के राजनीति में प्रवेश के पहले से ही लिबरमन लिकुड पार्टी में कार्यरत थे. वह 1980 के दशक की शुरुआत में येरुशलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान पार्टी में शामिल हुए, जहां उन्होंने अरब छात्रों के ख़िलाफ़ अक्सर हिंसक दक्षिणपंथी विरोध प्रदर्शनों में भाग लिया.
वह लिकुड पार्टी के नेता मोशे आर्न्स का समर्थन करने वाले 'आर्न्स कैंप' में सक्रिय थे, जिनका व्यापक रूप से पार्टी के अगले नेता बनने की उम्मीद थी. 20 साल की उम्र में अपने माता-पिता के साथ तत्कालीन सोवियत संघ से विस्थापित लिबरमन में शुरू से ही राजनीति में अपने को स्थापित करने की होड़ रही.
मोशे आर्न्स, जो की विदेश मंत्री रहे, उनका लिबरमन ने ज़ोर-शोर से समर्थन किया और उनके पक्ष में रैलियां निकालीं. मगर ये मेहनत रंग नहीं लाई और वो सही अवसर के तलाश में बने रहे.
फ़िलहाल उन्होंने किसी का भी साथ देने से इनकार किया है और एक राष्ट्रीय एकता की सरकार बनाने की मांग की है जिसमें उनकी पार्टी के अलावा दो सबसे बड़ी पार्टियां, लिकुड और ब्लू एंड वाइट, शामिल हों.
वो लगभग पिछले 20 सालों से सांसद या मंत्री रहे हैं और इस दौरान कई प्रभावशाली मंत्रालयों का नेतृत्व कर चुके हैं. वो अक्सर अपने अरब विरोधी बयानों की वजह से विवादों में भी घिरे रहे हैं और उनकी गिनती बेहद विवादास्पद नेताओं में होती है.
मौजूदा हालात में इसराइल में उनको लेकर सबसे अहम सवाल जो उठाया जा रहा है वो ये है कि प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के एक वक़्त वफ़ादार दाहिना हाथ माने जाने वाले लिबरमन आख़िर कैसे उनके रास्ते का कांटा बन गए और अब उनके राजनैतिक करियर को ख़त्म करने की कोशिश में जुड़ गए हैं.
लिबरमन ने नौ अप्रैल के आम चुनाव के बाद नेतन्याहू के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था जिसकी वजह से 17 सितम्बर को दोबारा चुनाव करवाने पड़े. इस चुनाव के बाद कुछ ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है कि माना जा रहा है कि लिबरमन तय करेंगे कि किसकी सरकार बने.
नेतन्याहू के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी पार्टियों के समूह को 120 सदस्यों वाली संसद में 55 सीटें मिली हैं वहीं विपक्षी पार्टियों को कुल 57 सीटें प्राप्त हुई हैं. लिबरमन के इसराइल बेतेनु पार्टी को 8 सीटें मिली हैं और वो जिस समूह का साथ देंगे उसकी सरकार बनेगी.

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